कक्षा 12 हिन्दी तुमुल कोलाहल कलह में | Tumul kolahal kalah class 12
इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 12 हिन्दी के पद्य भाग के पाठ छ: ‘तुमुल कोलाहल कलह में (tumul kolahal kalah me class 12)’ के व्याख्या सारांश सहित जानेंगे।
Bseb class 12th Hindi Poetry Chapter 6 तुमुल कोलाहल कलह में
लेखक - परिचय
कवि- जयशंकर प्रसाद
जन्म : 1889
निधन : 15 नवंबर 1937 में
जन्मस्थान : वाराणसी, उत्तरप्रदेश
पिता : देवी प्रसाद साह
पितामह : शिवरत्न साहु (सुंघनी साहु)
शिक्षा : आठवीं तक | संस्कृत, हिन्दी, फारसी, उर्दू की शिक्षा घर पर नियुक्त शिक्षकों द्वारा
विशेष परिस्थिति : बारह वर्ष की अवस्था में पितृविहीन, दो वर्ष बाद माता की मृत्यु
कृतियाँ : इंदु 1909 में प्रकाशित जिसमें कविता, कहानी, नाटक इत्यादि शामिल है।
प्रमुख काव्य संकलन : झरना (1918), आँसू (1925), लहर (1933)
अतुकांत रचनाएँ : महाराणा का महत्त्व, करुणालय, प्रेम पथिक
प्रबंधन काव्य: कामायनी (1936)
नाटक : कल्याणी परिणय (1912), प्रायश्चित (1914), राज्यश्री (1915), विशाख (1929), कामना (1927), जन्मजय का नागयज्ञ (1926), स्कंदगुप्त (1926), एक घूंट (1928), चंद्रगुप्त (1931), ध्रुवस्वामिनी (1933)।
छाया, इंद्रजाल, कंकाल, इत्यादि
यह एक छायावाद के कवि हैं।
कामायनी में कुल 15 सर्ग हैं।
पात्र : मनु = मनुष्य का मन, श्रद्धा = मनुष्य का हृदय, इड़ा = मनुष्य की बुद्धि
कामायनी
मन यज्ञ करते हैं। उसके बाद मन की श्रद्धा से शादी होती है। मन कृषि कार्य और गोपालन करते है। श्रद्धा माँ बनने वाली होती है। श्रद्धा को एक बेटा होता है। बेटा के जन्म के बाद अधिकतर समय वह अपने बेटे को देने के कारण मन को समय नहीं दे पाती है। मन को लगता है कि श्रद्धा हमसे अब प्यार नहीं करती है। जिससे मन श्रद्धा को छोड़ कर चले जाते हैं। मन की इड़ा से मुलाक़ात होती है और मन इड़ा से प्यार करने लगते है। मन जब इड़ा से ज़ोर-जबरदस्ती करते है तो इड़ा के राज्य की प्रजा इसका विरोध करती है और मन को पीटकर घायल कर देती है।
श्रद्धा मन को खोजते हुए इड़ा के राजमहल में अपने बच्चे मानव के साथ निर्वेद सर्ग पहुँचती है।
श्रदधा मनु को प्राप्त करके आनंद-विभोर हो जाती है और गाती है। मन को लगता है कि उन्होंने दोनों के साथ गलत किया है और वो श्रद्धा और इड़ा को छोड़कर दूसरे जगह चले जाते हैं। श्रद्धा अपने पुत्र को इड़ा के पास छोड़कर मनु को खोजने जाती है और अंतत : दोनों मिलते है।
tumul kolahal kalah me class 12 Hindi Chapter 6. तुमुल कोलाहल कहल में
तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!
प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। जिसमे श्रद्धा मन को पाकर कहती है कि इस अत्यंत कोलाहल में मैं हृदय के बात की तरह हूँ।
विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल
चेतना थक सी रही तब,
मैं मलय की वात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हई कहती है।
पुरुष जब दिनभर की भागदौड और मन की चंचलता के कारण थक जाता है और व्याकुल होकर आराम करना चाहता है तो ऐसी स्थिति में श्रद्धा (नारी का हृदय) मलय पर्वत से चलने वाली सुगंधित हवा की तरह शांति और विश्राम देती है। कवि कहना चाहते हैं कि मन चंचल है और मन की चंचलता के कारण शरीर थक कर आराम खोजता है ऐसी स्थिति में व्यक्ति का हृदय ही उसको आराम देता है।
tumul kolahal kalah me class 12 Hindi Chapter 6
चिर-विषाद विलीन मन की
इस व्यथा के तिमिर वन की
मैं उषा सी ज्योति रेखा,
कुसुम विकसित प्रात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हुई कहती है।
मन अंधकाररूपी दुख के वन में दीर्घ काल के लिए दबा हुआ है। मैं उसमें सुबह की किरणों की तरह हूँ। मैं इस अंधकार से पूर्ण वन में पुष्प से भरे हुए सुबह के समान हूँ।
जहां मरु ज्वाला धधकती
चातकी कन को तरसती
उन्हीं जीवन घाटियों की
मैं सरस बरसात रे मन!
प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हुई कहती है।
हे मन ! उस धधकते हुए मरुस्थल में जहाँ चातकी पानी के बुंदों के लिए तरसती है मैं उस जीवन की घाटी में सरस बरसात की तरह हूँ। कवि कहते हैं कि जब मानव जीवन कष्ट की अग्नि में मरुस्थल की तरह धधकता है तब आनंद रूपी बारिश ही उसके चित रूपी चातकी को सुख प्रदान करती है।
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जा रहा झुक
इस झुलसते विश्व-वन की
मैं कुसुम ऋतु रात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हुई कहती है।
हे मन ! जब जीवन पवन की ऊंची चहारदीवारी में बंद होकर झुक जाता है। जब मानव जीवन झुलस जाता है। ऐसी स्थिति में मैं वसंत की रात की तरह हूँ। जो इस झुलसे हुए मन को हरा-भरा कर सकती है।
चिर निराशा नीरधर से
प्रतिच्छायित अश्रु सर में
मधुप मुखर मरंद मकुलित
मैं सजल जलजात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हई कहती है।
हे मन ! गहरी निराशा के बादलों से घिरे हुए आसुओं के तालाब में मैं करुणा से भरी हुई कमल के समान हूँ जिसपर भौंरे गुंजार करते रहते है।


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